गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 32

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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द्वितीय अध्याय

अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराजकत बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः।।[1]

देखो, यदि कोई छः-आठ महीने या वर्ष दो वर्ष तक किसी सेठ- साहूकार का अन्न खा ले तो सेठ साहूकार यह चाहता है कि हमारा अन्न खाने वाला हमको ईश्वर समझे, हम तो इसके अन्नदाता हैं। कई-कई साधु लोग भी जब एक गृहस्थ का खाने-पीने लगते हैं तब उसके जेबी साधु हो जाते हैं। वह उनको अपने पॉकेट में रख लेता है और दिखाता फिरता है कि देखो, ऐसे-ऐसे साधु हमारी जेब में है। हम उनसे जो चाहें करवा सकते हैं। इसलिए ये लोग मुफ्त में नहीं खिलाते हैं। कहते हैं कि इन साधुओं से बड़ा न होता तो ये मुझको ईश्वर क्यों मानते! इसलिए आप एक का खाते-पीते किसी को राधा मान बैठोगे, किसी को कृष्ण मान बैठोगे! ये खिलाने वाले अपने को छोटा नहीं मानते हैं।

हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव, भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान।[2]

देखो, यहाँ गुरु के पहले ‘अर्थकामान्’ है। यदि इसको विशेषण बनाना हो तो गुरुओं का ही बनाना पड़ेगा, और तब यदि ‘गुरूनहत्वा रूधिरप्रदिग्धान् अर्थकामान् भुञ्जीय’ ऐसा अन्वय करोगे तो बिल्कुल क्लिष्ट अन्वय हो जाएगा और बीच में गुरु को छोड़कर रुधिर प्रदिग्ध को अर्थकाम का विशेषण बनाओगे तो यह कौन सी अन्वय रीति होगी?

अब बोले कि ये भले ही अर्थकाम हैं किंतु हैं तो अपने गुरुजन। इनको हम मारेंगे तो इनके खून से लथ-पथ भोग भोगना पड़ेगा और हमको यह उचित मालूम नहीं पड़ता। इसलिए मैं कायरता से युद्ध नहीं छोड़ रहा हूँ, अन्याय होने के कारण, न्याय के विरुद्ध होने के कारण, युद्ध छोड़ रहा हूँ, इसे विवेक पूर्वक छोड़ रहा हूँ।

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः।[3]

अरे बाबा, कुछ भी हो जाय, विवेक मत छोड़ो। प्रेम का मार्ग दूसरा है। सरकार कहती है कि कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए, विवेक नहीं छोड़ना चाहिए। ‘न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः’ यह अपना अज्ञान प्रकट करता है। ‘हननं वा श्रेयः, भैक्ष्यं वा श्रेयः, इति, अनयोर्मध्ये कतरत् श्रेयः।’ भीख माँगना श्रेय है? इन दोनों का विकल्प क्या है? बोले कि अभी हमारी समझ साफ-साफ जवाब नहीं दे रही है। कतरत्- यही साधन- विषयक विकल्प है। इसी तरह फलविषयक विकल्प है कि- ‘यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।’ क्योंकि यह निश्चित नहीं कि जय-पराजय हमारी ही होगी! विचार की गई कोटियाँ हैं- साधन की कोटि है, फल की कोटि है। यदि जीत हमारी होगी तो क्या ‘जानेव हत्वा जिजीविषामः’ द्रोण को मारकर, भीष्म को मारकर, अपने इष्टमित्रों को मारकर जिन्दा रहना चाहते हैं!


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 43.41;43.56
  2. 5
  3. 6

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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