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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
षष्ठम अध्यायपाँचवें अध्याय में यह प्रसंग है कि आत्मचिन्तन औ आत्माकार-वृत्ति के द्वारा महत्वबुद्धि कैसे आती है। छठें अध्याय में पातंजलयोग में क्या त्रुटियाँ हैं और सातवें अध्याय में सांख्ययोग में क्या त्रुटियाँ हैं- वह बताकर भगवान् गीता को वेदान्त दर्शन के साथ मिलाते हैं. हम प्रत्येक अध्याय में बतायेंगे कि उस अध्याय का व्यावर्त्य क्या है, क्योंकि लक्षण सबके सब व्यावर्तक होते हैं, उनसे क्या बात सिखायी जा रही है, हमारी बुद्धि में क्या शोधन किया जा रहा है, कौन सी मैल लगी हुई है हमारी अक्ल में कि उसको काट दें! इसी ज्ञान के लिए सब के सब लक्षण होते हैं। अब आओ, पहले योग-दर्शन पर एक दृष्टि डालें। मधुसूदन सरस्वती ने तो समग्र योग दर्शन को ही और उसकी व्याख्याओं को ही इस छठें अध्याय की टीका में भर दिया है। हम जरा सा आपको इसका संकेत कर देते हैं। आप दूसरों से व्यवहार करते हैं कि नहीं? करते हैं तो सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- इन पाँचों का ध्यान रखकर दूसरों से व्यवहार करें। अपने घर में व्यवहार करते समय तपस्या, शौच, स्वाध्याय, संतोष और ईश्वर प्राणिधान- इन पाँचों नियमों को ध्यान में रखकर व्यवहार करें। पराये व्यवहार में सत्य, अहिंसा नहीं सीखनी चाहिए और अपने व्यवहार में तपस्या, शौच, संतोष, ईश्वर-प्रणिधान, स्वाध्याय नहीं छूटना चाहिए। अब देखो, योग बाहर से भीतर आ गया। शरीर से जो चेष्टा हो, वह आसन प्रधान हो। फिर आप अपने व्यवहार से ही अपनी चेष्टा में आ गये। उसके बाद श्वास की गति को कम करना- यह प्राणायाम आ गया। इन्द्रियों को विषयों में न डालना- यह प्रत्याहार आ गया। मन को एक स्थान पर रोक लेना- यह धारणा आ गयी; इतने कालतक रोक लेना- यह ध्यान हो गया। एकाकारता में रोक लेना- यह सम्प्रज्ञात समाधि हो गयी और उससे असंग साक्षी का विवेक करके कार्य को कारण में लीन कर दिया तो असम्प्रज्ञात समाधि हो गयी। साक्षी ज्यों का त्यों रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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