गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 300

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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षष्ठम अध्याय

यह भी बात है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वेद पढ़ें, दान करें- ये तो उनके आवश्यक कर्तव्य हैं। परंतु पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना- उनके आवश्यक कर्म नहीं हैं। बल्कि दान लेने का काम वैश्य और क्षत्रिय के लिए बिलकुल मना ही है। उनके लिए पढ़ाना और यज्ञ कराना भी आपातकाल में ही है, सामान्य काल में नहीं। जीविकार्थ कर्मों को करने से पाप लगता है। किन्तु धर्मार्थ करमों को न करने से पाप लगता है। यदि वह स्वाध्याय छोड़ दे, यज्ञ छोड़ दे, दान देना छोड़ दें तो इससे उसको पाप नहीं लगता है। क्योंकि धर्म में जीविकार्थ धर्म और अन्तःकरण शुद्ध्यर्थ धर्म- ये दो विभाग हैं। इसलिए जिस कर्म के परित्याग से प्रत्यवाय लगता है, उस कर्म को अवश्य करना चाहिए; वह कार्य-कर्म है, कर्तव्य कर्म है। किन्तु कर्तव्य-कर्म करके, उसको पूरा करके उसके फल के लिए लड़ने लगे और कहे कि मैंने इतने दिनों तक निष्काम भाव से तुम्हारी सेवा की, श्रम करते-करते मेरे हाथ घिस गये, लेकिन तुमने हमें कुछ नहीं दिया तो यह निष्काम कर्म का उपहास है। ‘स संन्यासी च योगी च’- जो कर्म करता है वह कर्मयोगी है और जो फल नहीं चाहता, वह संन्यासी है। इस प्रकार कर्म करने वाले में योगीपना और संन्यासीपना- दोनों का निरूपण करके भगवान् ने उसके महत्व का स्थापन किया कि कर्म करना हो तो ऐसे करना चाहिए। यह कर्म करने की विधि है।

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्रासंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥[1]

भगवान् कहते हैं कि संन्यास का ही नाम योग है। संन्यास शब्द के दो अर्थ हैं। एक तो ‘सम्यक्-न्यासः संन्यासः’ अर्थात् भली-भाँति किसी का परित्याग कर देना है। कबीर के शब्दों में ‘ज्यों की त्यों धर दीन्हि चदरिया’ है। अनात्मा को आत्मा के रूप में छोड़ देना, माया को माया के रूप में छोड़ देना- इसका नाम संन्यास है। दूसरा अर्थ है संन्यास का ‘सति परमात्मनि अधिष्ठाने न्यासः अध्यस्त्वेन निरीक्षणं संन्यासः।’ सत् परमात्मा में, अधिष्ठान में संपूर्ण प्रपंच को अध्यस्त के रूप में देखने का नाम संन्यास है। सत् न्यास का, सति न्यास का रूप भी संन्यास ही बनेगा और सम्यक् न्यास का रूप भी संन्यास ही होगा। ‘म्’ का भी न होगा और ‘त्’ का भी न होगा, इसलिए डबल ‘न्न’ जोड़कर ‘सन्न्यास’ शब्द बनता है। सिंगल ‘न्’ का भी न होगा, इसलिए डबल ‘न्न’ जोड़कर ‘सन्न्यास’ शब्द बनता है। सिंगल ‘न्’ का सन्न्यास नहीं होता, डबल ‘न्न’ का ‘सन्न्यास’ होता है। डबल ‘न्न’ होना माने नेति-नेति। एक नेति नहीं, दो नेति होना चाहिए, माने स्थूल और सूक्ष्म दोनों का निषेध होना चाहिए। तभी सन्न्यास होता है। यही योग है माने परमात्मा से मिलन है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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