विषय सूची
गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
पंचम अध्यायजब साँस आकर भीतर जाती है तो भ्रूमध्य से होकर, शिरोभाग से होकर धीरे-धीरे कण्ठ में आती है, हृदय में नाभि में आति ही। आप उसी के साथ-साथ जैसे-जैसे हवा भीतर जाती है, वैसे-वैसे मन को ले जाइये और फिर वह जब वहाँ एक क्षण रुके तो रुक जाइये और फिर जब वहाँ से ऊपर को चले तो पहले हृदय में, फिर कण्ठ में, फिर आज्ञाचक्र में और फिर नासिका में ले जाइये। वह नासिका से बारह अंगुल दूर तक अधिक से अधिक आती है, वहाँ एक क्षण रुक जाती है फिर वहाँ से लौटती है। आप बिल्कुल साँस पर जोर मत लगाइये; वह जैसे चलती है उसके साथ अपने मन को कर दीजिए। आप अपने मनीराम को साँस के साथ भीतर ले जाइये और फिर साँस के साथ बाहर निकालिए। जहाँ साँस रुक जाये, वहाँ रुक जाइये और जहाँ चलने लगे, वहाँ चलने लगिये। प्राण और मन इन दोनों को एक साथ कर दीजिए। ‘नासाभ्यन्तरचारिणौ’- इसमें भेद नहीं होना चाहिए। नासाभ्यन्तरचारी का यही अर्थ है। ऐसा करने पर आप देखेंगे कि इन्द्रिय मन बुद्धि सब आपके वश में हो गये हैं। आप अनुभव करेंगे कि आप मुनि हैं। एक बात जरूर है कि यदि आप कुछ पकड़ना चाहते हैं तो यह बात नहीं बनेगी- ‘मुनिर्मोक्षपरायणः’। क्योंकि वहाँ हम छूटना चाहते हैं, पाना कुछ नहीं चाहते। सबसे छूटा हुआ आत्मा ब्रह्म है और किसी को पकड़े हुए आत्मा बद्ध है, जीव है। यदि वह किसी को पकड़ता है तो वह बद्ध है और यदि वह सबको छोड़ देता है तो मुक्त है। बस इतनी ही बात है। तो ‘मुनिर्मोक्षपरायणः’- मोक्ष ही आपका स्वरूप है। आप किसी के साथ संबंध न चाहें। संबंध का नाम बन्धन है। उसको तो भगवान् ने ही भेज दिया है कि हे बन्धन, तुम जरा दुनिया में घूम आओ। जब वह आया, तब चारों ओर घूमघामकर कहने लगा कि तुम हमें ले लो, तुम हमें ले लो। लेकिन कोई उस बंधन को स्वीकार ही न करें। वह लौटकर आया भगवान् के पास और उनके सामने रोने लगा कि हमें तो कोई नहीं लेता है। अब हम क्या करें महाराज! हमारा जीवन तो व्यर्थ हो गया! भगवान् ने कृपा करके उसके मुँह पर ‘सम्’ का बढ़िया सुंदर घूँघट चढ़ा दिया।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज