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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
चतुर्थ अध्यायलेकिन बाबा खिलाकर नहीं खाओगे, यज्ञ नहीं करोगे तो क्या होगा? ‘नायं लोकोस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम’। बेटा तुमसे नाराज, पत्नी तुमसे नाराज। मनुजी ने तो कहा है कि- ‘कुर्याद् भृत्यानपीडयन्’। जब कभी यज्ञ करना हो तो अपने नौकर को कोई तकलीफ नहीं पहुँचे, इसका ख्याल रखना। यदि नौकर को तकलीफ पहुँचेगी तो देवता संतुष्ट नहीं होंगे। क्योंकि नौकर की इन्द्रियों में उसका अंतःकरण में भी तो वही बैठा है। मनुजी ने यह भी लिखा है कि, कम से कम तीन वर्षों तक आपने कुटुम्ब को कोई कष्ट न हो तभी यज्ञ करना चाहिए। यह नहीं कि यज्ञ तो कर दिया और अपना कुटुम्ब पीड़ाग्रस्त हो गया। इसलिए यज्ञ करना हो तो उसके पहले तीन वर्षों तक के लिए कुटुम्ब के भरण-पोषण की व्यवस्था कर लेनी चाहिए और फिर जो बचता हो; उससे यज्ञ करना चाहिए। वह भी शुक्ल धन से। शुक्ल धन माने सफेद धन। काला धन नहीं। शास्त्र में शुक्ल धन की व्यवस्था है- जो ईमानदारी की कमाई हो, वही शुक्ल धन है और उसी से यज्ञ करना चाहिए। जब बेईमानी की कमाई से यज्ञ होगा, तब उससे जो फल पैदा होगा, वह आसमान में खड़ा होकर सोचने लगेगा कि मैं असल में जिसका धन है उसके पास जाऊँ या जिसने यज्ञ किया है उसके पास जाऊँ? इस प्रकार यज्ञ का फल दुविधा में पड़ जायेगा, तो वह न इधर का रहेगा और न उधर का रहेगा। बीच ही में नष्ट हो जायेगा। एक बात जरूर है। वह यह है कि जो धन सरकारी कानून के अनुसार है, वही शुक्ल है- यह दावा हम नहीं कर सकते। क्योंकि सरकारी कानून बनाने वाले कोई मनु-याज्ञवल्क्य या वसिष्ट-विश्वामित्र नहीं है। शास्त्रीय रीति से धन पर अपना हक होना चाहिए। हम कानून को धर्म नहीं मानते। धर्म होता है अंतःकरण की शुद्धि के लिए। दोनों का विषय बिल्कुल अलग-अलग है। इसलिए जो धर्मानुसार धन है वही यज्ञ का हेतु है। एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्माणो मुखे । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 32॥
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