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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
चतुर्थ अध्यायइसलिए काम वह है, जिसमें सिद्धि मिले। काम को बिगाड़ देना और यह कह देना कि तुम तो अधिकारी नहीं हो, किसी योग्य ही नहीं हो, ठीक नहीं है। इसलिए भगवान् कहते हैं कि कर्म करो। ‘क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।’ [1] यह मनुष्य शरीर कर्म के लिए पैदा ही हुआ है। नहीं तो आपको बढ़िया-बढ़िया दो हाथ मिले हैं, ये और किसी को नहीं मिले हैं। गाय का जीवन कर्म करने के लिए नहीं है। वह दूध देने के लिए है। बैल का जन्म हाथ से यज्ञ करने के लिए स्वाहा करने के लिए नहीं है, कंधे पर हल रखकर ढोने के ले है। हाथी का जन्म माला फेरने के लिए नहीं हुआ। यह बात दूसरी है कि हाथ भी भगत हो गया, ऊँट भी भगत हो गया। लेकिन यह सब अपवाद तो सृष्टि में होते ही रहते हैं, उनके लिए क्या किया जाए? ये अपवाद हैं जो गुणवाद के ही अंतर्गत आते हैं। वे भूतार्थवार्द नहीं है। अनुवाद भी नहीं है। इसलिए यह कभी नहीं सोचना चाहिए। कि कोई अनधिकारी हैं। जो जहाँ है उसको वहीं भगवान् की प्राप्ति हो सकती है, वही उसके अंतःकरण की शुद्धि हो सकती है। वहाँ क्या द्विजाति, क्या शूद्र, एक बराबर हैं। कोई अधिकारी नहीं। एक कवि ने लिखा है कि ईश को वेश्या भी भज सकती है, भक्तिभाव में वेश्या को भी शुचिता कब तज सकती है? यदि कोई कहे कि हमारे सामने सब पवित्रात्मा, सब धर्मात्मा आने चाहिए, कोई पतित न आने पावे, कोई वेश्या न आने पावे, तो फिर आप महात्मा ही क्यों हुए? महात्मा तो वह है जिससे पतित का भी उद्धार हो, वेश्या का भी उद्धार हो, कुमार्गगामी का भी उद्धार हो। यदि धर्मात्माओं का ही उद्धार करना था तो उसका उद्धार तो उसके अपने ही कर्म से हो जायेगा- ऐसे ही अवसर के लिए एक कवि ने लिखा है- ‘अपने कर्म से जो उतरेंगे पार तो पै हम कर्तार तुम काहे के?’ इसलिए सकाम पुरुष का भी कल्याण होता है और इसकी व्यवस्था शास्त्र में है। मनुष्य योनि इसीलिए बनी है। यह मत कहो कि अब इसका अमंगल हो गया, कल्याण हो गया, यह सुधर नहीं सकता। क्योंकि हमारे शास्त्रों में सबके लिए आश्वासन है। जो धर्म पतित का उद्धार नहीं कर सकता, नीच को ऊँच नहीं बना सकता, भूखे को अन्न नहीं दे सकता, मूर्ख को पढ़ा-लिखा नहीं बना सकता, रोगी को दवा नहीं दे सकता और निर्बुद्धि को बुद्धिमान नहीं बन सकता, उस धर्म की जरूरत ही क्या है दुनिया में, उस धर्म को तो मर जाना चाहिए। जो अनाश्रित का आश्रय बने और जिनका कोई न हो उनका अपना हो जाय, उसी का नाम महात्मा होता है, उसी का नाम धर्म होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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