गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 187

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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तृतीय अध्याय

असल में प्रकृति के गुणों से जो संमूढ़ हैं, वे ही उसके गुण-विभाग में या कर्म विभाग में आसक्त हो जाते हैं। वे कौन हैं? अधूरे जानकार हैं। ‘अकृत्स्नविद्’ माने उनको पूरा ज्ञान नहीं है। उनके पास उड़ती हुई जानकारी है, पल्लवग्राही पाण्डित्य है। मन्द हैं, माने उनके संग से बचना चाहिए। उनकी गति इतनी धीमी है कि यदि आप उनके साथ रह जाओगे तो आपकी प्रगति रुक जायेगी। आप ऐसे मन्दों की कंपनी कभी मत बनाना। वे तो मन्दगति से कभी आगे, कभी पीछे, कभी दायें, कभी बायें, अटकते-भटकते-सिसकते चल रहे हैं। इनके चक्कर में भी मत आना। अगर आप इनको अपने साथ रख लेंगे तो आपके ऊपर साढ़े साती शनिश्चर आ जायेगा। ज्योतिष में मंद माने शनिश्चर होता है। वह एक-एक राशि पर ढाई-ढाई बरस रहता है। इसलिए महाराज, आप उनसे दूर रहना। उनको रहने दो यथास्थान, चलने दो उनको अपनी चाल से। ‘कृत्स्नविन्न विचालयेत्’- उनको विचलित करने की जरूरत नहीं है।

हाथी चलता अपनी चाल से कुत्ता वाको भुँकवा दे।
तू तो राम भजो जग लड़वा दे!

फिर हम क्या करें महाराज? बोले कि कुछ करने की नहीं, यह समझने की जरूरत है कि कर्म तो होते ही रहेंगे। गीता के मत से अकेली प्रकृति कुछ नहीं कर सकती है, वह ईश्वर के सहयोग से करती है-

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। [1]'

यदि ऐसा नहीं समझोगे तो कहना पड़ेगा कि मैया इतनी चालाक है कि उसने बिना बाप के ही इतने बच्चे पैदा कर दिये हैं। ईश्वर है बाप और प्रकृति है मैया। अगर ईश्वर को नहीं मानोगे तो उसका क्या अर्थ होगा? यही होगा कि मैया बिना बाप के ही बच्चे पैदा करती है। इसलिए यह समझो कि इसमें ईश्वर का हाथ है, क्षेत्रज्ञ का हाथ है। तेरहवें अध्याय के प्रारंभ में ही यह बात आती है कि-

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।। [2]

अब भगवान् प्रस्तुत प्रसंग में कहते हैं कि-

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ॥[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (9.10)
  2. (13.1)
  3. 30

संबंधित लेख

गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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