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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
तृतीय अध्याययह आसक्ति न प्राकृत और न आत्मीय है। बिल्कुल मूर्खता के वश में ही आसक्ति उत्पन्न हुई है। इन्द्रियों का काम ही है विषयों में बरतना और देखते रहना विषयों को। यदि आपसे यह पूछा जाये कि आपने जन्म लेने से लेकर अब तक अपने हाथ से कौन-कौन काम किये हैं और कहाँ-कहाँ गये हैं- इसकी लिस्ट बनाकर दीजिए तो आप बना सकेंगे? अरे, जिनकी गिनती याद ही नहीं, उनको आप कैसे बतायेंगे? एक सज्जन को तो अपने बच्चों तक की गिनती याद नहीं रहती। वे पहले गिनते हैं, तब हमको बताते हैं कि स्वामीजी, यह दसवें नम्बर की बेटी है, यह सत्रहवें नम्बर का बेटा है। ये सब जिन्दा हैं। बीच में कितने मर गये- यह उनको मालूम नहीं है। उन्हें अपने बेटों का भी पता नहीं है। उन्होंने चार-पाँच ब्याह किये होंगे तो किसी पत्नी का नाम भी याद नहीं होगा, लेकिन आसक्ति के पीछे मरे डोलते हैं। यह भ्रम ही है उनका और कुछ नहीं है। तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: । प्रकृति के गुण में संविद् होना माने उनमें अटक जाना। अच्छा, आप यही बताइये कि आपके मन में अब तक सात्विक अथवा राजसिक वृत्तियाँ कितनी बार आ चुकी हैं? यह आप बता सकेंगे? अरे एक दिन में कितनी बार ये वृत्तियाँ आती हैं- यह भी आप नहीं बता सकते। आप प्रयास करके भी यह नहीं बता सकते कि आपके मनने क्या-क्या आकार ग्रहण किये हैं, आँख ने क्या-क्या शब्द सुने हैं। यह मूढ़ता नहीं तो और क्या है? याद कीजिए गोस्वामी तुलसीदास जी के इस पद को- ऐसी मूढ़ता या मनकी। जो अपना आत्मदेव है और जिसका कभी लोप ही नहीं होता, उसे छोड़कर लोग इन उड़ने वाली, पड़ने वाली, गिरने वाली, आने वाली, जानेवाली, बदलने वाली बहुरूपियों, वेश्याओं तथा कुलटाओं को समझते हैं कि ये हमारे साथ आकर चिपकती हैं और हम उनसे आसक्ति करते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 28
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