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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
तृतीय अध्यायआर्यसमाजी लोग कहीं हमको बुलाते हैं तो हम चले जाते हैं। हम उनके मंच पर जाकर वेद की प्रशंसा करते हैं और निराकार ईश्वर का निरूपण करते हैं। हमें उसमें कोई आपत्ति नहीं दीखती। वे हमें बहुत पसंद आते हैं, क्योंकि उनके कथनानुसार मोक्ष से पुनरावृत्ति होती है। यदि पूछो कि मोक्ष के बाद पुनर्जन्म होना कैसे पसन्द आया है? जब आपके रोम-रोम में शंकराचार्य बसे हुए हैं और आपके अंतःकरम का एक-एक कण शंकर है तो आपको क्यों पसंद आता है ऐसा सिद्धांत? देखो भाई, वे कहते हैं कि कर्म से मोक्ष होता है। वे जब कर्म से मोक्ष मानते हैं, तब यदि मोक्ष के बाद पुनरावृत्ति न मानें तो उनकी मूर्खता सिद्ध होगी। जब ज्ञान से मोक्ष होता है तब पुनरावृत्ति नहीं होगी, यह ठीक है। भक्ति से मोक्ष मानना भी ठीक है, लेकिन उसमें भी पुनरावृत्ति होना संभव है। होती है कि नहीं- यह हम नहीं बोलते। होना सम्भव है- यह बोलते हैं, क्योंकि वहाँ ईश्वर की कृपा से मुक्ति हुई है। जो चीज जिसकी दी हुई होती है, उसको वह वापिस भी ले सकता है। सरकार ने रायबहादुरी का खिताब दिया और छीन लिया। जब ईश्वरेच्छा से पराधीन मुक्ति की प्राप्ति हुई, ईश्वर चाहे तो उसे मुक्ति को स्थगित कर सकता है। वह कह सकता है कि मैं तो अवतार लेकर दुनियाँ में चलता हूँ लोकोपकार, लोकोद्धार करने के लिए और तुम यहाँ मुक्त बने बैठे हो! चलो हमारे साथ तुम भी जन्म लो! इसलिए जो लोग कर्म से मुक्ति मानते हैं उनका पुनर्जन्म मानना उचित है, क्योंकि भेद-सहिष्णु अभेद भी एक तथ्य है। एक छोटा सा जीवन कण संपूर्ण ईश्वर के किसी अंश में चिपका रहेगा तो ईश्वर जब चाहें तब उसे निकालकर अलग कर देंगे। लेकिन जो स्वतः सिद्ध ब्रह्म है वह सहज मुक्ति है, और केवल अज्ञानावरण से ही अपने को वद्ध मानता है। जब तत्वज्ञान से अज्ञानावरण क्षीण हो गया तब वहाँ पुनर्जन्म का कोई प्रसंग नहीं। हमने स्वामी दयानन्दजी को इसलिए बहुत पसंद किया कि वे बिलकुल शास्त्र की रीति से बोलते हैं। मेरी यह बात आप लोग मानो या मत मानो। हम आपको मनवाते थोड़े ही हैं। हम तो विवरण करते हैं, बात बताते हैं। क्योंकि दयानन्दजी के सिद्धांत में भी एक लड़ी है, कड़ी जुड़ी हुई है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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