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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
तृतीय अध्याययही बात मैंने कही है- जो लोग सत्य की गणना करके सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं, सम्यक् ख्याति चाहते हैं कि सत्य निवारण हो जाये, उनके लिए ज्ञानयोग है। किन्तु जो सत्य को अपरोक्ष मानते हैं, अप्राप्त मानते हैं, उसकी प्राप्ति के लिए उपाय करना चाहते हैं उनके लिए कर्मयोग है। श्रीमद्भागवत में एक मध्यम का वर्णन आया है- निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु। पूरा वैराग्य हो तो ज्ञानयोग है और संसार में देहेन्द्रियादि में राग हो तो कर्मयोग है। किन्तु यदि न तो पूरा राग हो और न पूरा वैराग्य हो तब? बोले कि वहाँ भक्तियोग है। लेकिन गीता में तो विधा ही है। विधा माने प्रक्रिया। यह विधि नहीं है, विधा है। विधि दूसरी चीज है और विधा दूसरी चीज है। विधा माने समझाने का प्रकार, शैली, ढंग। ‘ज्ञानयोगेन सांख्यानाम्’ [3] इससे तो यही मालूम हुआ कि सब लोग सांख्य का विचारर करें; क्योंकि कोई भी अपने को निर्बुद्धि तो स्वीकार करता ही नहीं। सब अपने को बुद्धिमान ही स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि क्या हम तुमसे कुछ कम हैं? हम भी ज्ञानयोग के अधिकारी हैं। हमको अनधिकारी बताने वाले तुम कौन होते हो! अब हम आपको कर्म और ज्ञान का अंगांगी भाव बताते हैं। यदि आप पहले कर्म नहीं करेंगे तो आपको नैष्कर्म्य की प्राप्ति नहीं होगी। नैष्कर्म्य फल है और कर्माराधन उसका साधन है। आप साफ-साफ देख लो इसे। इसमें बनावट करने की कोई जरूरत ही नहीं है। यदि आप कर्म का आरंभ नहीं करोगे तो नैष्कर्म्य की प्राप्ति नहीं होगी। अर्थात् कर्म का आरंभ करने से आप नैष्कर्म्य- प्राप्ति के योग्य हो जाओगे। यदि कहो कि महाराज, हमारी आँख से तो तस्वीर दिखती नहीं है, तो यह ठीक बात है। लेकिन तस्वीर दिखे कैसे? जरा पाँव से चलकर जाओ, तब तो दिखेगी! यह देखो, यहाँ पाँव से चलना कर्म है और आँख से देखना ज्ञान है। संसार में लोग अंध-पंगु-न्यास से समुच्चित होते हैं। पाँव से चलते हैं और आँख से देखते हैं। परंतु जहाँ चलकर जाना नहीं है, वहाँ समुच्चित नहीं होते हैं, वहाँ केवल देखना ही होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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