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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
द्वितीय अध्याय‘यः सर्वत्रानभिस्नेहः’-[1] स्नेह सबसे करो, पर अभिस्नेह किसी से मत करो। अभिस्नेह का अर्थ हैं गोंद। सबके लिए चिपके रहो। सबके लिए घी, सबके लिए मक्खन, सबके लिए दही, सबके लिए दूध बने रहो, लेकिन गोंद किसी के लिए भी मत बनो। ‘शुभाशुभम्’- कभी शुभ मिलेगा, कभी अशुभ मिलेगा। शोक की क्या कहें? लोग शोक ही करते जाते हैं और यह गलती, वह गलती देखते जाते हैं। गलती देखने में खुद ही गलत हो जाते हैं। अरे, संसार में कब तक गलतियाँ देखते रहोगे? छोड़ो गुण-दोषों का, शुभाशुभ का दर्शन! ‘नाभिनन्दति न द्वेष्टि’- तब क्या करें महाराज? अभिनन्दन और द्वेष, निन्दा और स्तुति बिल्कुल छोड़ दो। तुमने तो बिल्ली सामने से गुजरती देख चलना ही बन्द कर दिया। अरे वहतो शेर की मौसी है, तुम्हारे रास्ते में आ गयी तो क्या हुआ? तुम भी शेर की तरह चलते चलो! कभी कहते हो कि मुझको तो तेरह नम्बर की कोठरी मिल गयी। अरे, इस प्रकार का वहम विलायतवाले किया करें। तुम्हारे भारत वर्ष में तो ‘सर्वसिद्धा त्रयोदशी’ रहती है। यही बहुत बढिया है! अभिनन्दन और द्वेष में पक्षपात हो जाता है और उससे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। इसलिए गुण-दोष पर दृष्टि न डालो और समदर्शी रहो, चाहे कोई अच्छा करे, चाहे बुरा करे। तुम अच्छा करने वाले की स्तुति मत करो और बुरा करने वाले की निन्दा मत करो, नहीं तो तुम्हारी बुद्धि बिगड़ जायेगी, उसमें पक्षपात आ जायेगा और उसके तराजू का पलड़ा झुक जायेगा। इसी तरह कोई अच्छा कहे या बुरा कहे, जुबान उसकी है। वह बोलने में स्वतंत्र है। तुम क्या लोगों की जीभ पकड़कर चलोगे! मुझे एक महात्मा ने बताया था कि जो कुछ हो रहा है, वह होने दो और जो कुछ कहा जा रहा है, उसको कहा जाने दो! होने से रोकना ईश्वर का काम है और लोगों की जुबान पकड़ना ईश्वरर का काम है। हम तो ब्रह्म हैं; करने-कराने की मैनेजरी हमारे जिम्मे नहीं है। हम न तो करते हैं, न कराते हैं। श्रीउड़िया बाबाजी महाराज भागवत के इन श्लोकों को बहुधा बोला करते थे- न स्तुवीत न निन्देत कुर्वत: साध्वसाधु वा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2.57)
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