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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
द्वितीय अध्यायअब देखो, ‘मनोगतान् कामान् प्रजहाति।’ काम का संबंध आत्मा से नहीं है। ये आत्मा में रहते हैं, अनात्मा के विषय हैं और स्वयं अनात्मा हैं। अतएव ‘न अहं, न मम’- न काम मैं हूँ, न काम मेरा है और न काम का विषय मेरा है। भला मुझसे काम का क्या रिश्ता? दे दो तलाक काम को। कहदो जा रे जा, न तू मेरा और न मैं तेरा। इस प्रकार भगवान् ने हेतु वताकर कह दिया कि ‘मनोगतान् प्रजहाति।’ अच्छा, समाधिस्थ का क्या लक्षण है? मन में रहता है काम और मनोवृत्ति का कर लो निरोध, तो समाधिस्थ का लक्षण हो गया। ‘मनोगतान् अनात्मधर्मान् निश्चयति व्यवहारयति प्रजहाति’- काम मन में है, आत्मा में नहीं है- इसका निश्चय करके व्यवहार में यदि कभी इनकी स्फुरणा भी होती है, तो वे परित्यक्त ही हैं। मनोगतान् का यह अर्थ है कि समाधि और व्यवहार दोनों में नहीं। काम क्या होता है? ‘यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते हृदयस्मेह ग्रंथ्यः।’[1]। यह गाँठ है। वृत्ति और विषय की गाँठ का नाम काम है तथा आत्मा और वृत्ति की गाँठ का नाम अज्ञान है। गाँठ तो बिलकुल झूठी है। यहाँ गोस्वामीजी की गवाही ले लो- तो पहली बात यह है कि काम त्याग से बुद्धि में स्थिरता आती है। अब दूसरी बात क्या है यह देखो! ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’- तुम अपने आप में संतुष्ट हो कि नहीं? तुष्टि ढूँढ़ने के लिए कहा जाओगे? जहाँ खीर खाने को मिले। उसके लिए किसी गृहस्थ के घर में भिक्षा माँगने जायेंगे? क्योंकि वहाँ बहुत बढ़िया खीर मिलती है। अरे भगवान्! तुष्टि खीर में नहीं है, तुष्टि मकान में नहीं है, तुष्टि बिस्तर में नही है, तुष्टि स्त्री में नहीं है, तुष्टि पुत्र में नहीं है, तुष्टि धन में नहीं है। फिर कहाँ है? ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’- अपने आपमें संतुष्टि है। अरे भाई, कुछ तो होगा? नहीं, आत्मनि माने ब्रह्माकार वृत्ति से संतुष्ट है। नहीं, नहीं आकार-वकार छोड़ो, ‘आत्मन्येव संतुष्टः’- स्वयं में स्वयं तुष्ट है। स्वयं में स्वयं से संतुष्ट हैं, किसी जन्य वृत्ति से, उत्पाद्य वृत्ति से संतुष्ट नहीं है। सो, बुद्धि स्थिरर हो गयी। आत्मतुष्टि, आत्मानन्द का अनुभव हो गया। यह बुद्धि को स्थिर करेगा। जो असंतुष्ट होगा, वह तो कभी मार धाड़ भी करेगा। जो कामना के वशवर्ती होगा, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं होगी, न्याय से नहीं मिलेगा तो अन्याय भी करेगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कठ. 2.3.14
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