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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
द्वितीय अध्यायधनंजय, तुम्हारे नाम का अरथ साधनंजय भी है। जब नहाम ही रखना है, तो उसको सार्थक करो! तुम्हारे इस नाम में, ‘सा’ का लोप हो गया, ‘वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ’- ‘सा’ वर्ण का नाश हो गया और केवल धनंजय नाम हो गया। इसलिए नाम सच करने के ले साधन पर विजय प्राप्त करो। कैसे करें? उसके दो उपाय हैं- एक तो ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’- योग में स्थित होकर कर्म करो। साधन बुद्धि से कर्म करो। लक्ष्य वही है। मोटर चाहे दाहिने घुमाओं चाहे बायें घुमाओं, कभी उल्टी भी क्यों न घुमानी पड़े, पर जहाँ पहुँचाना है, वह लक्ष्य बना रहे। ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’- इसमें ‘योगस्थः’ का अर्थ यह नही है कि कर्म छोड़ दो। अरे, उपासना भी एक कर्म है, मानस कर्म है। योग भी एक आभ्यासिक कर्म है। जब दोहराना है, तब कर्म तो अपने आप ही हो गया, अभ्यास माने एक काम को बार-बार दोहराना। अभ्यासिका का नाम अभ्यास है। पुनः पुनः दोहराना अभ्यास है। यह सात्विक है। जो चीज अभ्यास से प्राप्त होती है- चाहे स्मृति हो, चाहे स्थिति हो- वह सात्विक ही होती है। वह सिद्ध वस्तु नहीं है। अभ्यास से जिसकी प्राप्ति होती है, वह सिद्ध वस्तु नहीं है। करो, करो, साधन करो, ठीक है। न करो नहीं, करो। और साधन दृष्टि से करो, साधन छोड़कर नहीं। परंतु ‘संगत्यक्त्वा’- आसक्ति छोड़ दो। जो किसी दूसरे के साथ मिलाये; उसका नाम संग। संगमनं संगः, किसी के साथ चिपका देना, इसका नाम संग है। जैसे बहेलिये तिकोनी में गोंद लगाकर चिड़िया फँसाते हैं, वैसे ही यह त्रिगुण चिपकाने वाला है। ‘संगं त्यक्त्वा’- तुम्हारे पाँव कहीं भी सट न जायें, नहीं तो उड़ने का सामर्थ्य बिल्कुल मिट जायेगा। हमको तो कृपा करके गुरु संन्यासी बनाते हैं. किसी-किसी को तो ईश्वर ही संन्यास की दीक्षा दे देता है। लेकिन लोग समझते नहीं हैं, रोते हैं कि हाय, ईश्वर ने हमको संन्यासी बना दिया। ईश्वर के बनाये संन्यासी लोग रोने लगते हैं और हमलोग खुशी-खुशी से, हँस-हँसकर संन्यास ग्रहण करते हैं। कई लोग नाम तो अपना रख लेते हैं आनन्द परक और कहते हैं कि हमारी औरत बहुत खुश है, बेटा बहुत खुश है, बहू कैसी बढ़िया आयी है, किन्तु हम तो मारे गये, संन्यासी हो गये। यह असंगता है। ‘संगं त्यक्त्वा,’ सटो मट, तीर की तरह निकल जाओ। बहादुरी से निकल जाओ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18.36
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