गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 74

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ॥30॥

तू विवेकवती बुद्धि के द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को मेरे अर्पण करके कामना-रहित, ममता रहित और सन्ताप-रहित होकर युद्धरूप कर्तव्य कर्म को करें।

व्याख्या- यदि साधक भगवनिष्ठ है तो उसे सम्पूर्ण कर्म भगवान के अर्पित करने चाहिये। अर्पण करने का तात्पर्य है- अपने लिये कोई कर्म न करके केवल भगवान की प्रसन्नता के लिये ही सब कर्म करना।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा: ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभि: ॥31॥

जो मनुष्य दोष-दृष्टि से रहित होकर श्रद्धा पूर्वक मेरे इस (पूर्वश्लोक में वर्णित) मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।

व्याख्या- भगवान का मत है- मिलने तथा बिछुड़ने वाली कोई भी वस्तु (पदार्थ और क्रिया) अपनी तथा अपने लिये नहीं है। भगवान् का मत ही वास्तविक सिद्धान्त है, जिसका अनुसरण करके मात्र मुक्त हो सकते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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