गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 1

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

पहला अध्याय

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धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥1॥

धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने भी क्या किया?

व्याख्या- यह हिन्दू संस्कृति की विलक्षणता है कि इसमें प्रत्येक कार्य अपने कल्याण का उद्देश्य सामने रखकर ही करने की प्रेरणा की गयी है। इसलिये युद्ध-जैसा घोर कर्म भी ‘धर्मक्षेत्र’ (धर्मभूमि) एवं ‘कुरुक्षेत्र’ (तीर्थभूमि) में किया गया है, जिसमें युद्ध में मरने वालों का भी कल्याण हो जाय।

भगवान की ओर से सृष्टि में कोई भी (मेरे और तेरे का) विभाग नहीं किया गया है। सम्पूर्ण सृष्टि पाञ्चभौतिक है। सभी मनुष्य समान हैं और उन्हें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी भी समान रूप से मिले हुए हैं। परन्तु मनुष्य मोह के वशीभूत होकर उनमें विभाग कर लेता है कि ये मनुष्य, घर, गाँव, प्रान्त, देश, आकाश, जल आदि मेरे हैं और ये तेरे हैं। इस ‘मेरे’ और ‘तेरे’ के भेद से ही सम्पूर्ण संघर्ष उत्पन्न होते हैं। महाभारत का युद्ध भी ‘मामकाः’ (मेरे पुत्र) और ‘पाण्डवाः’ (पाण्डु के पुत्र)- इस भेद के कारण आरम्भ हुआ है।


संजय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥2॥

संजय बोले- उस समय वज्रव्यूह से खड़ी हुई पाण्डव-सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर राजा दुर्योधन यह वचन बोला।

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