गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 255

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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श्रीभगवानुवाच:
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद: ॥1॥

श्रीभगवान बोले- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! ‘यह’-यप से कहे जाने वाले शरीर को ‘क्षेत्र’-इस नाम से कहते हैं और इस क्षेत्र को जो जानता है, उसको ज्ञानीलोग ‘क्षेत्रज्ञ’- इस नाम से कहते हैं।

व्याख्या- अर्जुन के द्वारा बारहवें अध्याय के आरम्भ में किये गये प्रश्न के उत्तर में भगवान ने सगुण-साकार की उपासना का विस्तार वर्णन किया। अब भगवान यहाँ से निर्गुण-निराकार की उपासनाा का विस्तार से वर्णन करना आरम्भ करते हैं।

जैसे खेत में तरह-तरह के बीज डालकर खेती की जाती है, ऐसे ही इस मनुष्य शरीर में अहंता-ममता करके जीव तरह-तरह के कर्म करता है और फिर उन कर्मों के फलरूप में उसे दूसरा शरीर मिलता है। भगवान शरीर के साथ माने हुए अहंता-ममतारूप सम्बन्ध का विच्छेद करने के लिये शरीर को इदंता (पृथक्ता -से देखने के लिये कर रहे हैं, जो प्रत्येक मार्ग के साधक के लिये अत्यन्त आवश्यक है।

अनन्त ब्रह्माण्डों में जितने भी शरीर हैं, उनमें जीव स्वयं ‘क्षेत्रज्ञ’ है और अनन्त ब्रह्माण्ड ‘क्षेत्र’ हैं। क्षेत्रज्ञ के एक अंश में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं- ‘येन सर्वमिदं ततम्’[1]। साधक को जानना चाहिये कि मैं क्षेत्र नहीं हूँ, प्रत्युत क्षेत्र को जानने वाला ‘क्षेत्रज्ञ’ हूँ।

एक ही चिन्मय तत्त्व (सत्ता) क्षेत्र के सम्बन्ध में ‘क्षेत्रज्ञ’, क्षर के सम्बन्ध से ‘अक्षर’, शरीर के सम्बन्ध से ‘शरीरी’, दृश्य के सम्बन्ध से ‘द्रष्टा’, साक्ष्य के सम्बन्ध से ‘साक्षी’ और करण के सम्बन्ध से ‘कर्ता’ कहा जाता है। वास्तव में उस तत्त्व का कोई नाम नहीं है। वह केवल अनुभवरूप है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 2।17)

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