गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
छठा अध्याय
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । व्याख्या- निष्कामभाव से केवल दूसरे के लिये कर्म करने से करने का वेग मिट जाता है। कर्म करने का वेग मिटने से साधक योगारूढ़ अर्थात समता में स्थित हो जाता है। योगारूढ़ होने पर शान्ति प्राप्त होती है। उस शान्ति का उपभोग न करने से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। शम (शान्ति) का अर्थ है- शान्त होना, चुप होना, कुछ न करना। जब तक हमारा सम्बन्ध ‘करने’ (क्रिया) के साथ है, तब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है। जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है, तब तक अशान्ति है, दुःख है, जन्म-मरण रूप बन्धन है। प्रकृति के साथ सम्बन्ध ‘न करेन’ से मिटेगा। कारण कि क्रिया और पदार्थ-दोनों प्रकृति में हैं। चेतन-तत्त्व में न क्रिया है, न पदार्थ, इसलिये परमात्म प्राप्ति के लिये ‘शम’ अर्थात कुछ न करना ही कारण है। हाँ, अगर हम इस शान्ति का उपभोग करेंगे तो परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। ‘मैं शान्त हूँ’- इस प्रकार शान्ति में अहंकार लगाने से और ‘बड़ी शान्ति है’- इस प्रकार शान्ति में सन्तुष्ट होने से शान्ति का उपभोग हो जाता है। इसलिये शान्ति में व्यक्तित्व न मिलाये, प्रत्युत ऐसा समझे कि शान्ति स्वतः है। शान्ति का उपभोग करने से शान्ति नहीं रहेगी, प्रत्युत चंचलता अथवा निद्रा आ जायगी। उपभोग न करने से शान्ति स्वतः रहेगी। क्रिया और अभिमान के बिना जो स्वतः शान्ति होती है, वह ‘योग’ है। कारण कि उस शान्ति का कोई कर्ता अथवा भोक्ता नहीं है। जहाँ कर्ता अथवा भोक्ता होता है, वहाँ भोग होता है। भोग होने पर संसार में स्थिति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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