गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 73

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: ।
गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते ॥28॥

परन्तु हे महाबाहो! गुण-विभाग और कर्म-विभाग को तत्त्व से जानने वाला महापुरुष ‘सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं’- ऐसा मान कर उनमे आसक्त नहीं होता।

व्याख्या- यह सिद्धान्त है कि संसार (पदार्थ और क्रिया) से अलग होने पर ही संसार का ज्ञान होता है और परमात्मा से एक होने पर ही परमात्मा का ज्ञान होता है। कारण यह है कि वास्तव में हम संसार से अलग और परमात्मा से एक हैं। तत्त्वज्ञ महापुरुष गुण-विभाग (पदार्थ) और कर्म-विभाग (क्रिया) से सर्वथा अलग होने पर यह जान लेता है कि सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ संसार में ही हो रही हैं। स्वरूप में कभी कोई क्रिया नहीं होती।

प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥29॥

प्रकृतिजन्य गुणों से अत्यन्त मोहित हुए अज्ञानी मनुष्य गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं। उन पूर्णतया न समझने वाले मन्द बुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी मनुष्य विचलित न करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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