गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
एषा ब्राह्यी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । व्याख्या- अहंतारहित होने पर मनुष्य ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हो जाता है। उसकी अपनी कोई स्वतन्त्र स्थिति नहीं रहती। इस ब्राह्मी स्थिति की प्राप्ति एक बार और सदा के लिये होती है। कारण कि ब्रह्म में हमारी स्वतः- स्वाभाविक स्थिति है, पर अहंकार के कारण इसका अनुभव नहीं होता। ‘मैं हूँ’ मिट जाय और ‘है’ रह जाय-यही ब्राह्यी स्थिति है। यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़ने वाली तथा उत्पन्न और नष्ट होने वाली होती है, वह हमारी तथा हमारे लिये नहीं हो सकती। शरीर तो मिलने-बिछुड़ने वाला तथा उत्पन्न-नष्ट होने वाला है, पर स्वयं मिलने-बिछुड़ने वाला तथा उत्पन्न-नष्ट होने वाला नहीं है। अतः साधक दृ़ढ़ता पूर्वक इस सत्य को स्वीकार कर ले कि मैं (स्वयं) त्रिकाल में भी शरीर नही हूँ, शरीर मेरा नहीं है तथा मेरे लिये भी नहीं है। ‘निर्वाण’ शब्द के दो अर्थ होते हैं- लुप्त (खोया हुआ) और विश्राम (शान्त)। अतः खोये हुए ब्रह्म को पा लेना अथवा परम विश्राम को प्राप्त कर लेना ही निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति है। ‘निर्वाण’ शब्द का एक अर्थ शून्य भी होता है। शून्य अभाव का वाचक नहीं है। शून्य का तात्पर्य है- जो न सत हो, न असत हो, न सदसत् हो और न सदसत् से भिन्न हो अर्थात जो अनिर्वचनीय तत्त्व हो- ‘अतस्तत्त्वं सदसदुभयानुभयात्मक चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं शून्यमेव’ (सर्वदर्शनसंग्रह)। क्रियामात्र का सम्बन्ध संसार के साथ है। हमारा स्वरूप अक्रिय है। इसलिये शरीर के द्वारा हम अपने (स्वरूप के) लिये कुछ नहीं कर सकते। शरीर के द्वारा हम कोई भी क्रिया करेंगे तो वह संसार के लिये ही होगी, अपने लिये नहीं। पूर्वपक्ष- तो फिर हम अपने लिये क्या कर सकते हैं? उत्तर पक्ष- हम अपने लिये अपने द्वारा निष्काम, निःस्पृह, निर्मम और निरहंकार हो सकते हैं। क्यों हो सकते हैं? क्योंकि हम वास्तव में स्वरूप से निष्काम, निःस्पृह निर्मम और निरहंकार हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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