गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 141

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सातवाँ अध्याय

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मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय: ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥1॥

श्रीभगवान बोले- हे पृथानन्दन! मुझमें आसक्त मन वाला, मेरे आश्रित होकर योग का अभ्यास करता हुआ तू मेरे जिस समग्ररूप को निःसन्देह जिस प्रकार से जानेगा, उसको (उसी प्रकार से) सुन।

व्याख्या- आत्मीयता के कारण जिसका मन भगवान् की ओर आकर्षित हो गया है, जो सब प्रकार से भगवान के आश्रित हो गया है और जिसने भगवान के साथ अपने नित्य-सम्बन्ध को पहचान लिया है, ऐसा भक्त भगवान के समग्ररूप को जान लेता है। सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि सब कुछ एक भगवान ही हैं- यह भगवान का समग्ररूप है। भगवान कहते हैं कि पार्थ! अपने समग्ररूप का वर्णन मैं इस ढंग से करूँगा, जिससे तू मेरे समग्ररूप को सुगमतापूर्वक यथार्थरूप से जान लेगा और तेरे सब संशय मिट जायँगे।

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्यांम्यशेषत: ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥2॥

तेरे लिये मैं यह विज्ञान सहित ज्ञान सम्पूर्णता से कहूँगा, जिस को जानने के बाद फिर इस विषय में जानने योग्य अन्य (कुछ भी) शेष नहीं रहेगा।

व्याख्या- परा तथा अपरा प्रकृति की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है- यह ‘ज्ञान’ और परा-अपरा सब कुछ एक भगवान ही हैं- यह ‘विज्ञान’ है। अहम् सहित सब कुछ भगवान हैं- यह भगवान का समग्ररूप ही ‘विज्ञान सहित ज्ञान’ है। इस विज्ञान सहित ज्ञान को जानने के बाद और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता; क्योंकि ‘सब कुछ भगवान ही हैं’- इसे जानने के बाद यदि कुछ शेष रहेगा तो वह भी भगवान ही होंगे!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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