गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 57

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति ॥71॥

जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंतारहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।

व्याख्या- जब मनुष्य कामना, स्पृहा, ममता और अहंता से छूट जाता है, तब उसे अपने भीतर नित्य-निरन्तर स्थित रहने वाली शान्ति का अनुभव हो जाता है। मूल में अहंता ही मुख्य है। सबका त्याग करने पर भी अहंता शेष रह जाती है, पर अहंता का त्याग होने पर सबका त्याग हो जाता है। अहंता से राग, राग से आसक्ति, आसक्ति से ममता और ममता से कामना तथा कामना से फिर अनेक प्रकार के विकारों की उत्पत्ति होती है। साधक के लिये पहले ममता का त्याग करना सुगम पड़ता है। ममता का त्याग होने पर कामना, स्पृहा और अहंता का त्याग करने की सामर्थ्य आ जाती है। वास्तव में हम कामना, स्पृहा, ममता और अहंता से रहित हैं। यदि हम इनसे रहित न होते तो कभी इनका त्याग न कर पाते और भगवान भी इनके त्याग की बात नहीं कहते। सुषुप्ति में अहंता आदि के अभाव का अनुभव सबको होता है, पर अपने अभाव का अनुभव कभी किसी को नहीं होता।

मूल में कामना, स्पृहा, ममता और अहंता की सत्ता है ही नहीं-‘नासतो विद्यते भावः’[1]। हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है। चिन्मय सत्तामात्र में कामना, स्पृहा, ममता औ अहंता होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। ये कामना आदि जड़ में ही रहते हैं, चेतन तक पहुँचते ही नहीं। चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। कामना, स्पृहा आदि निरन्तर नहीं रहते, प्रत्युत बदलते रहते हैं-यह सबका अनुभव है। प्रत्येक जन्म में कामना, स्पृहा आदि अलग-अलग थे। इस जन्म में भी बचपन में कामना, स्पृहा आदि अलग थे, अब अलग हैं। हम इन्हें छोड़ते और पकड़ते रहते हैं। पहले खिलौनों की कामना थी, फिर रुपयों की कामना हो गयी। पहले माँ में ममता थी, फिर पत्नी में ममता हो गयी। इस प्रकार कामना, स्पृहा, ममता आदि का आना-जाना, उत्पत्ति-विनाश, संयोग-वियोग, आरम्भ-अन्त आदि होता रहता है, पर सत्तामात्र स्वरूप का आना-जाना आदि होता ही नहीं। जो वस्तु है ही नहीं, उसे हमने पकड़ लिया अर्थात उसे सत्ता और महत्ता दे दी-यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। इस भूल को मिटाने की जिम्मेवारी हम पर ही है, तभी भगवान इनका त्याग करने की बात कहते हैं, अन्यथा जो है ही नहीं, उसका त्याग स्वतःसिद्ध है। जो स्वतःसिद्ध है, उसे ही प्राप्त करना है। नया निर्माण कुछ नहीं करना है। नया निर्माण ही हमारे बन्धन का, दुःखों का कारण बनता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 2।16)

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