गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 56

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥70॥

जैसे (सम्पूर्ण नदियों का) जल चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है, पर (समुद्र अपनी मर्यादा में) अचल स्थित रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को (विकार उत्पन्न किये बिना ही) प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्ति को प्राप्त होता है भोगों की कामना वाला नहीं।

व्याख्या- जब मनुष्य सर्वथा निष्काम हो जाता है, तब आवश्यक वस्तुएँ उसके पास स्वाभाविक आती हैं, वे उसके हृदय में हर्ष आदि कोई विकार उत्पन्न नहीं करतीं। प्रारब्ध के अनुसार अनुकूल या प्रतिकूल जो भी परिस्थिति प्राप्त होती है, उससे उस तत्त्वज्ञ महापुरुष के अन्तःकरण में किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार उत्पन्न नहीं होते, वह सर्वथा सम रहता है। परन्तु जिसके भीतर सांसारिक कामनाएँ हैं उसे वस्तुएँ प्राप्त हों या न हों वह सदा अशान्त ही रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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