गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 55

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश: ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥68॥

इसलिये हे महाबाहो! जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सर्वथा वश में की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति सयंमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: ॥69॥

सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मा से विमुखता) है, उस में संयमी मनुष्य जागता है और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रह में लगे रहते हैं), वह तत्त्व को जानने वाले मुनि की दृष्टि में रात है।

व्याख्या- अब भगवान सांख्ययोग की दृष्टि से कहते हैं; क्योंकि परिणाम में कर्म योग तथा सांख्ययोग एक ही हैं[1]। लोग जिस परमात्मा की तरफ से सोये हुए हैं, वह तत्त्वज्ञ महापुरुष और सच्चे साधकों की दृष्टि में दिन के प्रकाश के समान है। सांसारिक लोगों का तो पारमार्थिक साधक के साथ विरोध होता है, पर पारमार्थिक साधक का सांसारिक लोगों के साथ विरोध नहीं होता- ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।’[2]। सांसारिक लोगों ने तो केवल संसार को ही देखा है, पर पारमार्थिक साधक संसार को भी जानता है और परमात्मा को भी। संसार में रचे-पचे लोग सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही अपनी उन्नति मानते हैं; परन्तु तत्त्वज्ञ महापुरुष और सच्चे साधकों की दृष्टि में वह रात के अन्धकार की तरह है, उसका किंचिन्मात्र भी महत्त्व नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 5।4-5)
  2. (मानस, उत्तर. 112 ख)

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