गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 54

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम् ॥66॥

जिस के मन- इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और (व्यवसायात्मिका बुद्धि न होने से) उस अयुक्त मनुष्य में निष्कामभाव अथवा कर्तव्यपरायणता का भाव नहीं होता। निष्कामभाव न होने से उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्ति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?

व्याख्या- कर्म योग में निष्काम भाव की मुख्यता है। निष्कामभाव के लिये मन और इन्द्रियों का संयम तथा एक निश्चयवाली बुद्धि का होना आवश्यक है।

अशान्ति का मूल कारण कामना है। जब तक मनुष्य के भीतर किसी प्रकार की कामना है, तब तक उसे शान्ति नहीं मिल सकती। कामनायुक्त चित्त सदा अशान्त ही रहता है।

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥67॥

कारण कि (अपने-अपने विषयों में) विचरती हुई इन्द्रियों में से (एक ही इन्द्रिय) जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह (अकेला मन) जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।
 

व्याख्या- जब तक साधक की बुद्धि एक उद्देश्य में दृढ़ नहीं होती, तब तक सम्पूर्ण इन्द्रियों का तो कहना ही क्या है, एक ही इन्द्रिय मन को हर लेती है और मन बुद्धि को हर कर उसे भोगों में लगा देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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