गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 315

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सोलहवाँ अध्याय

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श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥1॥

श्रीभगवान बोले- भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की अत्यन्त शुद्धि ज्ञान के लिये योग में दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना और शरीर-मन-वाणी की सरलता।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥2॥

अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अन्तःकरण में राग-द्वेषजनित हल चल का न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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