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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
पन्द्रहवाँ अध्याय
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । व्याख्या- भगवान ने इस अध्याय में अपने-आप को पुरुषोत्तमरूप से अर्थात अलौकिक समग्ररूप से प्रकट किया है, इसलिये इसे ‘गुह्यतम शास्त्र’ कहा गया है। पूर्वश्लोक में सर्वभाव से भगवान का भजन करने अर्थात अव्यभिचारिणी भक्ति की बात विशेषरूप से आयी है। भक्ति में मनुष्य प्राप्त प्राप्तव्य हो जाता है। अतः पूर्वश्लोक में प्राप्त प्राप्तव्य होने की बात माननी चाहिये। इस श्लोक में (‘बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च’ पद में) ज्ञातज्ञातव्य तथा कृतकृत्य होने की बात आयी है। लौकिक क्षर और अक्षर तो प्राप्त हैं; अतः अलौकिक परमात्मा ही प्राप्तव्य हैं। इस श्लोक में यह भाव निकलता है कि भक्त को ज्ञानयोग तथा कर्मयोग- दोनों का फल प्राप्त हो जाता है अर्थात वह ज्ञातज्ञातव्य और कृतकृत्य भी हो जाता है।[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 7।29-30, 10।10-11)
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