गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 72

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥27॥

सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला अज्ञानी मनुष्य मैं कर्ता हूँ- ऐसा मान लेता है।

व्याख्या- जड़-विभाग अलग है और चेतन-विभाग अलग है। क्रियामात्र जड़ प्रकृति में ही होती है। चेतन में कभी कोई क्रिया होती ही नहीं- ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’[1]। क्रिया का आरम्भ और समाप्ति तथा पदार्थ का आदि और अन्त होता है; परन्तु चेतन का न आरम्भ तथा समाप्ति होती है, न आदि तथा अन्त होता है।

भगवान ने गीता में कर्मों के होने में पाँच कारण बताये हैं-

1. प्रकृति- ‘प्रकृतेः क्रियमाणनि०’[2], ‘प्रकृत्यैव च कर्माणि.’[3]

2. गुण-‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’[4], ‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं०[5]

3. इन्द्रियाँ-‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’[6]

4. स्वभाव-(क्रिया का वेग)-‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’[7], ‘प्रकृतिं यान्ति भूतानि०’[8]

5. पाँच हेतु-‘अधिष्ठानं तथा कर्ता०’[9]

उपर्युक्त पाँचों का मूल कारण एक ‘अपरा प्रकृति’ (जड़-विभाग) ही है। आज तक अनेक योनियों में जीव ने जो भी कर्म किये हैं, उनमें से कोई भी कर्म तथा कोई भी शरीर स्वरूप तक नहीं पहुँचा। सूर्य तक अंधकार कैसे पहुँच सकता है? कारण कि कर्म और शरीरादि पदार्थों का विभाग ही अलग है और स्वरूप का विभाग ही अलग है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 13।31)
  2. (3।27)
  3. (13।29)
  4. (3।28)
  5. (14।19)
  6. (5।9)
  7. (5।14)
  8. (3।33)
  9. (18।14)

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