गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तीसरा अध्याय
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । व्याख्या- यदि साधक भगवनिष्ठ है तो उसे सम्पूर्ण कर्म भगवान के अर्पित करने करने चाहिये। अर्पण करने का तात्पर्य है -अपने लिये कोई कर्म न करके केवल भगवान की प्रसन्नता के लिये ही सब कर्म करना। सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । व्याख्या- चेतन-तत्त्व सम रहता है और प्रकृति विषम रहती है। इसलिये तत्त्वज्ञ महापुरुषों के स्वरूप में तो कोई भिन्नता नहीं होती, पर उनकी प्रकृति (स्वभाव) में भिन्नता होती है। उनका स्वभाव राग-द्वेष से रहित होने के कारण महान शुद्ध होता है। स्वभाव शुद्ध होने पर भी तत्त्वज्ञ महापुरुषों के स्वभाव में (जिस साधन-मार्ग से सिद्धि प्राप्त की है, उस मार्ग के सूक्ष्म संस्कार रहने के कारण) भिन्नता रहती है और उस स्वभाव के अनुसार ही उनके द्वारा भिन्न-भिन्न व्यवहार होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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