गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 64

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिष्टकामधुक् ॥10॥

देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥11॥

प्रजापति ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आदिकाल में कर्तव्य कर्मो के विधान सहित प्रजा (मनुष्य आदि) की रचना करके (उनसे, प्रधानतया मनुष्यों से) कहा कि तुम लोग इस कर्तव्य के द्वारा सब की वृद्धि करो और यह (कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ) तुम लोगों को कर्तव्य पालन की आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो। इस (अपने कर्तव्य-कर्म) के द्वारा तुम लोग देवताओं को उन्नत करो और वे देवता लोग (अपने कर्तव्य के द्वारा) तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।

व्याख्या-अपने कर्तव्य का पालन करने से अर्थात दूसरों के लिये निष्काम भाव से कर्म करने से अपना तथा प्राणि मात्र का हित होता है। परन्तु अपने कर्तव्य का पालन न करने से अपना तथा प्राणि मात्र का अहित होता है। कारण कि शरीर की दृष्टि से तथा आत्मा की दृष्टि से भी मात्र प्राणी एक हैं, अलग-अलग नहीं।

मनुष्य शरीर केवल कल्याण-प्राप्ति के लिये ही मिला है। अतः अपना कल्याण करने के लिये कोई नया काम करना आवश्यक नहीं है, प्रत्युत जो काम करते हैं, उसे ही फलेच्छा और आसक्ति का त्याग करके दूसरों के हित के लिये करने से हमारा कल्याण हो जायगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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