गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 63

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: ॥8॥

तू शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर ॥9॥

यज्ञ (कर्तव्य-पालन) के लिये किये जाने वाले कर्मों से अन्यत्र (अपने लिये किये जाने वाले) कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य-समुदाय कर्मों से बँधता है; इसलिये हे कुन्तीनन्दन! तू आसक्ति रहित होकर उस यज्ञ के लिये ही कर्तव्य-कर्म कर।

व्याख्या- जो कर्म दूसरों के लिये नहीं किये जाते, प्रत्युत अपने लिये किये जाते हैं, उन कर्मों से मनुष्य बँध जाता है। अतः साधक को ये तीन बातें स्वीकार कर लेनी चाहिये-

1. शरीर सहित कुछ भी मेरा नहीं है,

2. मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, और

3. मुझे अपने लिये कुछ भी नहीं करना है।

पहली बात स्वीकार करने से दूसरी बात सुगम हो जायगी और दूसरी बात स्वीकार करने से तीसरी बात सुगम हो जायगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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