गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 65

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स: ॥12॥

यज्ञ से पुष्ट हुए देवता भी तुम लोगों को (बिना माँगे ही) कर्तव्य पालन की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं की दी हुई सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाये बिना जो मनुष्य (स्वयं ही उस का) उपभोग करता है, वह चोर ही है।

व्याख्या- शरीर पाञ्चभौतिक सृष्टिमात्र का एक क्षुद्रतम अंश है। अतः स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण-तीनों शरीर संसार के तथा संसार के लिये ही हैं। शरीर स्वयं (स्वरूप) के किंचिन्मात्र भी काम नहीं आता, प्रत्युत शरीर का सदुपयोग ही स्वयं के काम आता है। शरीर का सदुपयोग है- उसे दूसरों की सेवा में लगाना-संसार की सेवा में समर्पित कर देना। जो मनुष्य मिली हुई सामग्री का भाग दूसरों (अभावग्रस्तों) को दिये बिना अकेले ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है। उसे वही दण्ड मिलना चाहिये, जो चोर को मिलता है।

यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषै: ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥13॥

यज्ञशेष (योग) का अनुभव करने वाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात सब कर्म करते हैं, वे पापी लोग तो पाप का ही भक्षण करते हैं।

व्याख्या- सम्पूर्ण पापों का कारण है- कामना। अतः कामनापूर्वक अपने लिये कोई भी कर्म करना पाप (बन्धन) है और निष्काम भाव से दूसरे के लिये कर्म करना पुण्य है। पाप का फल दुःख और पुण्य का फल सुख है। इसलिये स्वार्थ भाव से अपने लिये कर्म करने वाले दुःख पाते हैं और निःस्वार्थ भाव से दूसरों के लिये कर्म करने वाले सुख पाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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