गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तीसरा अध्याय
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:। व्याख्या- शरीर पाञ्चभौतिक सृष्टिमात्र का एक क्षुद्रतम अंश है। अतः स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण-तीनों शरीर संसार के तथा संसार के लिये ही हैं। शरीर स्वयं (स्वरूप) के किंचिन्मात्र भी काम नहीं आता, प्रत्युत शरीर का सदुपयोग ही स्वयं के काम आता है। शरीर का सदुपयोग है- उसे दूसरों की सेवा में लगाना-संसार की सेवा में समर्पित कर देना। जो मनुष्य मिली हुई सामग्री का भाग दूसरों (अभावग्रस्तों) को दिये बिना अकेले ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है। उसे वही दण्ड मिलना चाहिये, जो चोर को मिलता है। यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषै: । व्याख्या- सम्पूर्ण पापों का कारण है- कामना। अतः कामनापूर्वक अपने लिये कोई भी कर्म करना पाप (बन्धन) है और निष्काम भाव से दूसरे के लिये कर्म करना पुण्य है। पाप का फल दुःख और पुण्य का फल सुख है। इसलिये स्वार्थ भाव से अपने लिये कर्म करने वाले दुःख पाते हैं और निःस्वार्थ भाव से दूसरों के लिये कर्म करने वाले सुख पाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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