गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 51

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित: ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन: ॥60॥

कारण कि हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहने से) यत्न करते हुए विद्वान मनुष्य की भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मन को बलपूर्वक हर लेती हैं।
 

व्याख्या- बुद्धिमान साधक को अपनी इन्द्रियों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। कारण कि जबतक अहंता में रस बुद्धि पड़ी है, तब तक साधक का पतन होने की सम्भावना रहती है।

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर: ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥61॥

कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में कर के मेरे परायण हो कर बैठे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।
 

व्याख्या- साधन की पूर्णता के लिये भगवान की परायणता आवश्यक है। भगवान के परायण होने से इन्द्रियाँ सुगमता पूर्वक वश में हो जाती हैं। अपने पुरुषार्थ से इन्द्रियों को सर्वथा वश में करना कठिन है। इन्द्रियाँ सर्वथा वश में होने से ही बुद्धि स्थिर होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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