गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित: । व्याख्या- बुद्धिमान साधक को अपनी इन्द्रियों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। कारण कि जबतक अहंता में रस बुद्धि पड़ी है, तब तक साधक का पतन होने की सम्भावना रहती है। तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर: । व्याख्या- साधन की पूर्णता के लिये भगवान की परायणता आवश्यक है। भगवान के परायण होने से इन्द्रियाँ सुगमता पूर्वक वश में हो जाती हैं। अपने पुरुषार्थ से इन्द्रियों को सर्वथा वश में करना कठिन है। इन्द्रियाँ सर्वथा वश में होने से ही बुद्धि स्थिर होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज