गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
यदा संहरते चायं कूर्मोंऽग्नीङाव सर्वश: । व्याख्या- स्वयं नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है और शरीर नित्य-निरन्तर बदलता रहता है; अतः दोनों के स्वभाव में कोई अन्तर नहीं पड़ता। परन्तु जब स्वयं शरीर के साथ मैं-मेरे का सम्बन्ध मान लेता है, तब बुद्धि में (शरीर-संसार का असर पड़ने से) अन्तर पड़ने लगता है। मैं-मेरापन मिटने से बुद्धि में जो अन्तर पड़ता था, वह मिट जाता है और बुद्धि स्थिर हो जाती है। बुद्धि स्थिर होने से स्वयं अपने आप में ही स्थित हो जाता है। विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन: । व्याख्या- भोगों के प्रति सूक्ष्म आसक्ति का नाम ‘रस’ है। यह रस साधक की अहंता रहता है। जब तक यह रस रहता है, तब तक परमात्मा का अलौकिक रस (प्रेम) प्रकट नहीं होता। इस रसबुद्धि के कारण ही भोगों की पराधीनता रहती है। साधक के द्वारा भोगों का त्याग करने पर भी रसबुद्धि बनी रहती है, जिसके कारण भोगों के त्याग का बड़ा महत्त्व दिखता है और अभिमान भी होता है कि मैंने भोगों का त्याग कर दिया है। यद्यपि यह रस तत्त्व प्राप्ति के पहले भी नष्ट हो सकता है, तथापि तत्त्व प्राप्ति के बाद यह सर्वथा नष्ट हो ही जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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