गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 47

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥52॥

जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायगा।

व्याख्या- मिलने और बिछुड़ने वाले पदार्थों और व्यक्तियों को अपना तथा अपने लिये मानना मोह है। इस मोहरूपी दलदल से निकलने पर साधक को संसार से वैराग्य हो जाता है। संसार से वैराग्य होने पर अर्थात राग का नाश होने पर योग की प्राप्ति हो जाती है।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥53॥

जिस काल में शास्त्रीय मतभेदों से विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मा में अचल हो जायगी, उस काल में तू योग को प्राप्त हो जायगा।
 

व्याख्या- पूर्वश्लोक में सांसारिक मोह के त्याग की बात कहकर भगवान प्रस्तुत श्लोक में शास्त्रीय मोह अर्थात! सीखे हुए (अनुभवहीन) ज्ञान के त्याग की बात कहते हैं। ये दोनों ही प्रकार के मोह साधक के लिये बाधक हैं। शास्त्रीय मोह के कारण साधक द्वैत, अद्वैत आदि मतभेदों में उलझ कर खण्डन-मण्डन में लग जाता है। केवल अपने कल्याण का ही दृढ़ उद्देश्य होने पर साधक सुगमता पूर्वक इस (दोनों प्रकार के) मोह से तर जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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