गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 48

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥54॥

अर्जुन बोले- हे केशव! परमात्मा में स्थित स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं? वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है अर्थात व्यवहार करता है?
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥55॥

श्रीभगवान बोले- हे पृथानन्दन! जिस काल में साधक मन में आयी सम्पूर्ण कामनाओं का भलीभाँति त्याग कर देता है और अपने-आप से अपने-आप में ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थिर बुद्धि कहा जाता है।

व्याख्या- मन की स्थिरता की अपेक्षा बुद्धि की स्थिरता श्रेष्ठ है; क्योंकि मन की स्थिरता से तो लौकिक सिद्धियाँ प्रकट होती हैं, पर बुद्धि की स्थिरता से कल्याण हो जाता है। मन की स्थिरता है- वृत्तियों का निरोध और बुद्धि की स्थिरता है- उद्देश्य की दृढ़ता।

त्याग उसी का होता है जो वास्तव में सदा ही त्यक्त है। कामना स्वयंगत न होकर मनोगत है। परन्तु मन के साथ तादात्म्य होने के कारण कामना स्वयं में दीखने लगती है। जब साधक को स्वयं में सम्पूर्ण कामनाओं के अभाव का अनुभव हो जाता है, तब उसकी बुद्धि स्वतः स्थिर हो जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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