गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 46

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम् ॥50॥

बुद्धि (समता) से युक्त मनुष्य यहाँ (जीवित अवस्था में ही) पुण्य और पाप-दोनों का त्याग कर देता है। अतः तू योग (समता) में लग जा; क्योंकि कर्मों में योग ही कुशलता है।

व्याख्या- समता में स्थित मनुष्य जल में कमल की भाँति संसार में रहते हुए भी पाप-पुण्य दोनों से नहीं बँधता अर्थात मुक्त हो जाता है। यही जीवन्मुक्ति है।

पूर्वश्लोक में आया है कि योग की अपेक्षा कर्म दूर से ही निकृष्ट हैं, इसलिये मनुष्य को समता में स्थित होकर कर्म करने चाहिये अर्थात कर्मयोग का आचरण करना चाहिये। महत्त्व योग (समता) का है, कर्मों का नहीं। कल्याण करने की शक्ति योग (कर्मयोग) में है, कर्मों में नहीं। (बुद्धि, योग और बुद्धियोग-ये तीनों ही शब्द गीता में ‘कर्मयोग’ के लिये आये हैं।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण: ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥51॥

कारण कि समता युक्त बुद्धिमान साधक कर्मजन्य फल का अर्थात संसारमात्र का त्याग करके जन्मरूप बन्धन से मुक्त होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं।

व्याख्या- समता में स्थित हो कर कर्म करने वाले अर्थात कर्मयोगी साधक जन्म-मरण से रहित होकर परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं। अतः कर्मयोग मुक्ति का स्वतन्त्र साधन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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