गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनञ्जय । व्याख्या- एक वस्तु या व्यक्ति में राग होगा तो दूसरी वस्तु या व्यक्ति में द्वेष होना स्वाभाविक है। राग-द्वेष के रहते हुए कर्म की सिद्धि-असिद्धि में समता का आना असम्भव है। राग-द्वेष के न रहने पर जो समता आती है, उस समता में स्थित रहकर कर्तव्य-कर्मों को करना चाहिये। समता को ही ‘योग’ कहा जाता है। कर्म तो करणसापेक्ष होते हैं, पर योग करणनिरपेक्ष है। इस समतारूपी योग में स्थित साधक कभी विचलित (योगभ्रष्ट) नहीं होता। दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय । व्याख्या- योग की अपेक्षा कर्म दूर से ही निकृष्ट हैं, उनकी परस्पर तुलना नहीं हो सकती। योग नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहने वाला (अविनाशी) है और कर्म आदि-अन्त वाला (नाशवान्) है, फिर उनकी तुलना हो ही कैसे सकती है? इसलिये कर्मों का आश्रय न लेकर योग का ही आश्रय लेना चाहिये। योग की प्राप्ति कर्मों के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत कर्म तथा कर्मफल के साथ सम्बन्ध-विच्छेद होने पर होती है। कर्मों का आश्रय जन्म-मरण देने वाला और योग का आश्रय मुक्त करने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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