गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 44

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: ॥46॥

सब तरफ से परिपूर्ण महान जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे ग्रहों में भरे जल में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है अर्थात कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, (वेदों और शास्त्रों को) तत्त्व से जानने वाले ब्रह्मज्ञानी का सम्पूर्ण वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता।

व्याख्या- इस श्लोक में ऐसे महापुरुष वर्णन हुआ है, जिसे परम विश्राम की प्राप्ति हो गयी है। परम-विश्राम की प्राप्ति होने पर फिर किसी क्रिया तथा पदार्थ की आवश्यकता नहीं रहती। वह पूर्णता को प्राप्त हो जाता है। ऐसे महापुरुष को ‘ब्राह्मण’ कहने का तात्पर्य है कि जिसने पूर्णता को प्राप्त कर लिया है, वही वास्तविक ‘ब्राह्मण’ है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥47॥

कर्तव्य - कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।

व्याख्या- एक कर्म-विभाग (करना) है और एक फल-विभाग (होना) है। ‘करना’ मनुष्य के अधीन है और ‘होना’ प्रारब्ध अथवा परमात्मा के अधीन है। प्रारब्ध से अथवा परमात्मा के विधान से मनुष्य को जो कुछ मिला है, उसे अपने भोग में न लगाकर दूसरों की सेवा में लगाना मनुष्य का कर्तव्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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