गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके । व्याख्या- इस श्लोक में ऐसे महापुरुष वर्णन हुआ है, जिसे परम विश्राम की प्राप्ति हो गयी है। परम-विश्राम की प्राप्ति होने पर फिर किसी क्रिया तथा पदार्थ की आवश्यकता नहीं रहती। वह पूर्णता को प्राप्त हो जाता है। ऐसे महापुरुष को ‘ब्राह्मण’ कहने का तात्पर्य है कि जिसने पूर्णता को प्राप्त कर लिया है, वही वास्तविक ‘ब्राह्मण’ है। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । व्याख्या- एक कर्म-विभाग (करना) है और एक फल-विभाग (होना) है। ‘करना’ मनुष्य के अधीन है और ‘होना’ प्रारब्ध अथवा परमात्मा के अधीन है। प्रारब्ध से अथवा परमात्मा के विधान से मनुष्य को जो कुछ मिला है, उसे अपने भोग में न लगाकर दूसरों की सेवा में लगाना मनुष्य का कर्तव्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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