गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । व्याख्या- भगवान अर्जुन को आज्ञा देते हैं कि वेदों के जिस अंश में सकाम भाव का वर्णन है, उसका त्याग करके तू निष्काम भाव को ग्रहण कर। निष्काम भाव से तू तीनों गुणों से अतीत (जन्म-मरण से रहित) हो जायगा। मिलने और बिछुड़ने वाले संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करके तू नित्य रहने वाली चिन्मय सत्ता में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव कर। योग (अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) की कामना का भी त्याग कर दे; क्योंकि कामना मात्र बन्धनकारक है। पहले बयालीसवें श्लोक में भगवान ने बताया कि जो मनुष्य ‘वेदवादरताः’ (वेदोक्त सकाम कर्मों में रुचि रखने वाले) होते हैं, उनकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं होती, कारण कि व्यवसायात्मिका बुद्धि के लिये निष्काम होना आवश्यक है। वेद तीनों गुणों के कार्य का वर्णन करने वाले हैं, इसलिये भगवान अर्जुन को तीनों गुणों से रहित होने की आज्ञा देते हैं-‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन’। वेदोक्त सकाम अनुष्ठानों को करने वाले मनुष्यों को योगक्षेम की प्राप्ति नहीं होती और वे संसार-चक्र में पड़े रहते हैं- ‘एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते’[1]। संसार-चक्र में पड़ने का कारण वेद नहीं हैं, प्रत्युत कामना है। भगवत्परायण साधक को भोग व संग्रह की कामना तो दूर रही, योगक्षेम की भी कामना नहीं करनी चाहिये। इसलिये भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू मेरे परायण होकर योगक्षेम की भी कामना का त्याग कर दे अर्थात सांसारिक अथवा पारमार्थिक कोई भी कामना न रख कर सर्वथा निष्काम हो जा। भगवान के समान दयालु कोई नहीं है। वे कहते हैं कि भक्तों का योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ- ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’[2]मैं उनके साधन की सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओं को भी दूर कर देता हूँ-‘मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि’[3]और उनका उद्धार भी कर देता हूँ- ‘तेषामहं समुद्धर्ता०’[4]अतः भगवान के भजन में लगे हुए साधक को अपने साधन तथा उद्धार के विषय में कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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