गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । व्याख्या- प्राणिमात्र परमात्मा अंश है-‘ममैवांशो जीवलो के’[1]‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’[2]। परमात्मा का अंश होने के नाते इसका कभी नाश हुआ ही नहीं, कभी नाश होगा ही नहीं, कभी नाश हो सकता ही नहीं। अविनाशित्व, ज्ञान और आनन्द शरीरी के गुण नहीं हैं, प्रत्युत स्वरूप है। शरीर केवल कर्म करने का तथा उस का फल भोगने का उपकरण है। अतः शरीर का सम्बन्ध नाशवान् संसार के साथ है; क्योंकि यह संसार का ही अंश हैं। व्याकरण की दृष्टि से देखें तो मतुप्, इनि आदि प्रत्यय छः अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्योगेऽतिशायने। संसर्गेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः।। ‘अस्तिविवक्षा में जो मतुप् आदि प्रत्यय होते हैं, वे सब बहुत्व, निन्दा, प्रशंसा, नित्योग, अतिशय और संसर्ग-इन छः विषयों में ही होते हैं।’ यहाँ जीवात्मा के लिये ‘निन्दा’ अर्थ में ‘इनि’ प्रत्यय किया गया है, जिससे ‘देही’, ‘शरीरी’ आदि शब्द बनते हैं कारण कि जिस चिन्मय एवं अविनाशी सत्ता (आत्मा) का जड़ एवं नाशवान् शरीर या देह से किंचिन्मात्र भी कोई सम्बन्ध है ही नहीं, उसी शरीरी या देही कहना वास्तव में उसकी निन्दा ही है। उदाहरणार्थ, जिस मनुष्य को कोढ़ है, उसे कोढ़ी कहना वास्तव में उसकी निन्दा है; क्योंकि कोढ़ उसका स्वरूप नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक दोष है। इसी तरह शरीर उत्पन्न और नष्ट होने वाला है- ‘अन्तवन्त इमें देहाः’[3], पर आत्मा उत्पन्न और नष्ट होने वाला नहीं है-‘देही नित्यमवध्योऽयम्’[4], ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’[5], ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’[6]। जब शरीर ही नहीं रहेगा तो फिर शरीरी कैसे रहेगा? कोढ़ी को तो कोढ़ खराब दीखता है, पर जीव को अज्ञानवश शरीर खराब न दीखकर उल्टे बढ़िया दीखता है! तात्पर्य यह हुआ कि भगवान ने कृपा पूर्वक अज्ञानी मनुष्यों को समझाने के लिये ही जीवात्मा (चेतन-तत्त्व) को शरीरी और देही कहा है। वास्तव में जीवात्म शरीरी अथवा देही नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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