गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 36

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥31॥

और अपने क्षात्रधर्म को देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात कर्तव्य-कर्म से विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है।

व्याख्या- यदि साधक की रुचि, विश्वास और योग्यता ज्ञानयोग की नहीं है तो उसे कर्मयोग का पालन करना चाहिये। कारण कि ज्ञानयोग और कर्मयोग-दोनों का फल एक ही है[1]। तात्पर्य है कि शरीर-शरीरी के विवेक को महत्त्व देने से जो तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व शरीर द्वारा स्वधर्म (कर्तव्य-कर्म) का पालन करने से भी मिल सकता है। अतः भगवान कर्तव्य-कर्म (क्षात्रधर्म) के पालन का प्रकरण आरम्भ करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 5।4-5)

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