गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । व्याख्या- यदि साधक की रुचि, विश्वास और योग्यता ज्ञानयोग की नहीं है तो उसे कर्मयोग का पालन करना चाहिये। कारण कि ज्ञानयोग और कर्मयोग-दोनों का फल एक ही है[1]। तात्पर्य है कि शरीर-शरीरी के विवेक को महत्त्व देने से जो तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व शरीर द्वारा स्वधर्म (कर्तव्य-कर्म) का पालन करने से भी मिल सकता है। अतः भगवान कर्तव्य-कर्म (क्षात्रधर्म) के पालन का प्रकरण आरम्भ करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 5।4-5)
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