गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 37

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥32॥

अपने-आप प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्ग का दरवाजा भी है। हे पृथानन्दन! वे क्षत्रिय बड़े सुखी (भाग्यशाली) हैं, जिनको ऐसा युद्ध प्राप्त होता है।

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
तत: स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥33॥

अब अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति का त्याग करके पाप को प्राप्त होगा।

अकर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥34॥

और सब प्राणी भी तेरी सदा रहने वाली अपकीर्ति का कथन अर्थात निन्दा करेंगे। वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्य के लिये मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायी होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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