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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च । व्याख्या- आसुर मनुष्य केवल अपना सुख-आराम, अपना स्वार्थ देखते हैं। जिससे अपने को सुख मिलता दीखे, उसी में उनकी प्रवृत्ति होती है और जिससे दुःख मिलता दीखे, स्वार्थ सिद्ध होता न दीखे, उसी से उनकी निवृत्ति होती है। वास्तव में प्रवृत्ति और निवृत्ति में शास्त्र ही प्रमाण है[1]; परन्तु अपने शरीर और प्राणों में मोह रहने के कारण आसुर मनुष्यों की प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्र को लेकर नहीं होती। आसुर स्वभाव के कारण वे शास्त्र की बात सुनते ही नहीं और अगर सुन भी लें तो उसे समझ सकते ही नहीं। कभी सन्त-महात्मओं से शास्त्र की बात सुनने पर भी वे उन्हें स्वीकार नहीं करते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 16।24)
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