गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 319

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सोलहवाँ अध्याय

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द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु ॥6॥

इस लोक में दो तरह के ही प्राणियों की सृष्टि है- दैवी और आसुरी। दैवी को तो मैंने विस्तार से कह दिया, अब हे पार्थ! तु मुझ से आसुरी को (विस्तार से) सुनो।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा: ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥7॥

आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य किसमें प्रवृत्त होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये- इसको नहीं जानते और उनमें न तो बाह्य शुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य- पालन ही होता है।

व्याख्या- आसुर मनुष्य केवल अपना सुख-आराम, अपना स्वार्थ देखते हैं। जिससे अपने को सुख मिलता दीखे, उसी में उनकी प्रवृत्ति होती है और जिससे दुःख मिलता दीखे, स्वार्थ सिद्ध होता न दीखे, उसी से उनकी निवृत्ति होती है। वास्तव में प्रवृत्ति और निवृत्ति में शास्त्र ही प्रमाण है[1]; परन्तु अपने शरीर और प्राणों में मोह रहने के कारण आसुर मनुष्यों की प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्र को लेकर नहीं होती। आसुर स्वभाव के कारण वे शास्त्र की बात सुनते ही नहीं और अगर सुन भी लें तो उसे समझ सकते ही नहीं। कभी सन्त-महात्मओं से शास्त्र की बात सुनने पर भी वे उन्हें स्वीकार नहीं करते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 16।24)

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