गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 317-318

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सोलहवाँ अध्याय

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दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुच: सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥5॥

दैवी सम्पत्ति मुक्ति के लिये और आसुरी सम्पत्ति बन्धन के लिये मानी गयी है। हे पाण्डव! तुम दैवी-सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो, इसलिये तुम शोक (चिन्ता) मत करो।

व्याख्या- जीव के एक ओर भगवान हैं और एक ओर संसार है। जब वह भगवान के सम्मुख होता है तब उसमें दैवी-सम्पत्ति आती है और जब वह संसार के सम्मुख होता है तब उसमें आसुरी-सम्पत्ति आती है।

दूसरों के सुख के लिये कर्म करना अथवा दूसरों का सुख चाहना ‘चेतनता’ है, और अपने सुख के लिये कर्म करना अथवा सुख चाहना, ‘जड़ता’ है। भजन-ध्यान भी आपके सुख के लिये, अपने मान-आदर के लिये करना जड़ता है। चेतनता की मुख्यता से दैवी-सम्पत्ति आती है और जड़ता की मुख्यता से आसुरी-सम्पत्ति आती है।

मूल दोध एक ही है, जिससे सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति उत्पन्न होती है, और मूल गुण भी एक ही है, जिससे सम्पूर्ण दैवी-सम्पत्ति प्रकट होती है। मूल दोष है- शरीर-संसार की सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उससे सम्बन्ध जोड़ना। मूल गुण है- भगवान की सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उनसे सम्बन्ध-जोड़ना। यह मूल दोष और मूल गुण ही स्थान भेद से अनेक रूपों में दीखता है।

जब गुणों के साथ अवगुण रहते हैं, तभी तक गुणों की महत्ता दीखती है और उनका अभिमान होता है। कोई भी अवगुण न रहे तो अभिमान नहीं होता। अभिमान आसुरी-सम्पत्ति का मूल है। अभिमान के कारण मनुष्य को दूसरों की अपेक्षा अपने में विशेषता दीखने लगती है-यह आसुरी-सम्पत्ति है। अभिमान होने के कारण दैवी-सम्पत्ति भी आसुरी-सम्पत्ति की वृद्धि करने वाली बन जाती है। जब गुणों के साथ अवगुण नहीं रहते, तब गुणों की महत्ता नहीं दीखती और उनका अभिमान भी नहीं होता। अभिमान न होने के कारण अर्जुन को अपने में गुण (श्रेष्ठता) नहीं दीखते। इसलिये उनकी चिन्ता दूर करने के लिये भगवान उन से कहते हैं कि तुम्हारे में दैवी-सम्पत्ति है, भले ही वह तुम्हें न दीखे।

गीता में ‘मा शुचः’ पद दो बार आये हैं- एक यहाँ और दूसरा अठारहवें अध्याय के छाछठवें श्लोक में। यहाँ ये पद ‘साधन’ के विषय में और अठारहवें अध्याय में ‘सिद्धि’ के विषय में चिन्ता न करने के लिये आये हैं। अतः भक्त को इन दोनों ही विषयों में चिन्ता नहीं करनी चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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