गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 31

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत: ॥23॥

शस्त्र इस शरीरी को काट नहीं सकते, अग्नि इस को जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।

व्याख्या- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार- यह अपरा प्रकृति (जड़-विभाग) है और स्वरूप परा प्रकृति (चेतन-विभाग) है[1]। अपरा प्रकृति परा प्रकृतितक पहुँच ही नहीं सकती। जड़ पदार्थ चेतन-तत्त्वतक कैसे पहुँच ही नहीं सकती। जड़ पदार्थ चेतन-तत्त्व तक कैसे पहुँच सकता है? अन्धकार सूर्य तक कैसे पहुँच सकता है? इसलिये जड़ वस्तु चेतन शरीरी में किंचिन्मात्र कोई विकार उत्पन्न नहीं कर सकती।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्य: सर्वगत स्थाणुरचलोऽयं सनातन: ॥24॥

यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहने वाला, सब में परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाव वाला और अनादि है।

व्याख्या- जड़ वस्तु शरीरी में कोई भी विकार उत्पन्न नहीं कर सकती; क्योंकि शरीरी स्वतः स्वाभाविक निर्विकार है। निर्विकारता इसका स्वरूप है।

शरीरी सर्वगत है, शरीरगत नहीं। जो चौरासी लाख योनियों से होकर आया, वह शरीरगत कैसे हो सकता है? जो सर्वगत है, वह शरीरगत (एकदेशीय) नहीं हो सकता और जो शरीरगत है, वह सर्वगत नहीं हो सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 7।4-5

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