गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 32

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥25॥

यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तन का विषय नहीं है और निर्विकार कहा जाता है। अतः इस देही को ऐसा जान कर शोक नहीं करना चाहिये।

व्याख्या- साधक का स्वरूप अव्यक्त है; परन्तु शरीर रूप से वह अपने को व्यक्त मानता है- यह साधक की मूल भूल है। इस भूल का प्रायश्चित्त करने के लिये तीन बाते हैं-

1. साधक अपनी भूल को स्वीकार करे कि अपने को शरीर मान कर मैंने भूल की

2. साधक अपनी भूल का पश्चाताप करे कि साधक होकर मैंने ऐसी भूल की और

3. साधक यह निश्चय करे कि अब आगे मैं कभी ऐसी भूल नहीं करूँगा।

शरीरी (सत-तत्त्व) का अनुभव तो किया जा सकता है, पर वर्णन नहीं किया जा सकता। उसका जो भी वर्णन या चिन्तन किया जाता है, वह वास्तव में प्रकृति का ही होता है। एक बार शरीरी का अनुभव होने पर फिर मनुष्य सदा के लिये शोक रहित हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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