गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 30

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥21॥

हे पृथानन्दन! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्म रहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये?

व्याख्या- शरीर की किसी भी क्रिया से शरीरी में किंचिन्मात्र भी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। अतः शरीरी किसी भी क्रिया का न तो कर्ता (तथा भोक्ता) बनता है, न कारयिता ही बनता है।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥22॥

मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।

व्याख्या- जैसे कपड़े बदलने से मनुष्य बदल नहीं जाता, ऐसे ही अनेक शरीरों को धारण करने और छोड़ने पर भी शरीरी वही-का-वही रहता है, बदलता नहीं। तात्पर्य है कि शरीर के परिवर्तन तथा नाश से स्वयं का परिवर्तन तथा नाश नहीं होता। यह सब का अनुभव है कि हम रहते हैं, बचपन आता और चला जाता है। हम रहते हैं, जवानी आती और चली जाती है। हम रहते हैं, बुढ़ापा आता और चला जाता है। वास्तव में न बचपन है, न जवानी हैं, न बुढ़ापा है, न मृत्यु है, प्रत्युत केवल हमारी सत्ता ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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