गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । व्याख्या- शरीरी में कर्तापन नहीं है और मृत्युरूप विकार भी नहीं है। कर्तापन आदि सभी विकार प्रकृति से माने हुए सम्बन्ध (मैं-पन) में ही हैं। न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय: । व्याख्या- उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना- ये छः विकार शरीर में ही होते हैं। शरीरी में ये विकार कभी हुए नहीं, कभी होंगे नहीं, कभी हो सकते ही नहीं। शरीरी कभी उत्पन्न नहीं होता-‘न जायते’, ‘अजः;; उत्पन्न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता- अयं भूत्वा भविता वा न भूयः’; यह बदलता नहीं-‘शाश्वतः’; यह बढ़ता नहीं-‘पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता-‘नित्यः’; और यह मरता नहीं-‘न म्रियते’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’। मुख्य विकार दो ही हैं- उत्पन्न होना और नष्ट होना। अतः प्रस्तुत श्लोक में इन दोनों विकारों का शरीरी में दो-दो बार निषेध किया गया है; जैसे-‘न जायते म्रियते’ और ‘अजः’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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