गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 29

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥19॥

जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरी को मारने वाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इस को नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है।

व्याख्या- शरीरी में कर्तापन नहीं है और मृत्युरूप विकार भी नहीं है। कर्तापन आदि सभी विकार प्रकृति से माने हुए सम्बन्ध (मैं-पन) में ही हैं।

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय: ।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥20॥

यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होेने वाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहने वाला, शाश्वत और अनादि है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।

व्याख्या- उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना- ये छः विकार शरीर में ही होते हैं। शरीरी में ये विकार कभी हुए नहीं, कभी होंगे नहीं, कभी हो सकते ही नहीं।

शरीरी कभी उत्पन्न नहीं होता-‘न जायते’, ‘अजः;; उत्पन्न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता- अयं भूत्वा भविता वा न भूयः’; यह बदलता नहीं-‘शाश्वतः’; यह बढ़ता नहीं-‘पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता-‘नित्यः’; और यह मरता नहीं-‘न म्रियते’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’।

मुख्य विकार दो ही हैं- उत्पन्न होना और नष्ट होना। अतः प्रस्तुत श्लोक में इन दोनों विकारों का शरीरी में दो-दो बार निषेध किया गया है; जैसे-‘न जायते म्रियते’ और ‘अजः’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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