गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 28

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥17॥

अविनाशी तो उस को जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश कोई भी नहीं कर सकता।

व्याख्या- जिस सत्-तत्त्व का अभाव विद्यमान नहीं है, वही अविनाशी तत्त्व है, जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। अविनाशी होने के कारण तथा सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त होने के कारण उसका कभी कोई नाश कर सकता ही नहीं। नाश उसी का होता है जो नाशवान् तथा एक देश में स्थित हो।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥18॥

अविनाशी, जानने में आने वाले और नित्य रहने वाले इस शरीरी के ये देह अन्त वाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन! तुम युद्ध करो।

व्याख्या- पूर्वश्लोक में शरीरी को अविनाशी बता कर अब भगवान यह कहते हैं कि मात्र शरीर नाशवान हैं, मरने वाले हैं। तात्पर्य है कि मिला हुआ तथा बिछुड़ने वाला शरीर हमारा स्वरूप नहीं है। शरीर तो केवल कर्म - सामग्री है, जिसका उपयोग केवल दूसरों की सेवा करने में ही है। अपने लिये उसका किंचिन्मात्र भी उपयोग नहीं है। अतः शरीर के नाश से अपनी कोई हानि नहीं होती

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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