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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
पन्द्रहवाँ अध्याय
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: । व्याख्या- वास्तव में शुद्ध चेतन (आत्मा)-का किसी शरीर को प्राप्त करना और उसका त्याग करना और उसका त्याग करके दूसरे शरीर में जाना हो नहीं सकता; क्योंकि आत्मा अचल और समानरूप से सर्वत्र व्याप्त है[1]। शरीरों का ग्रहण और त्याग परिच्छिन्न (एकदेशीय) तत्त्व के द्वारा ही होना सम्भव है, जबकि आत्मा कभी किसी भी देश्ज्ञ-कालादि में परिच्छिन्न नहीं हो सकती। परन्तु जब यह आत्मा प्रकृति के कार्य शरीर से तादात्म्य कर लेती है अर्थात शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लेती है, तब सूक्ष्मशरीर के आने-जाने को उसका आना-जाना कहा जाता है। वायु का दृष्टान्त देने का तात्पर्य है कि जीव वायु की तरह निर्लिप्त रहता है। शरीर से लिप्त होने पर भी वास्तव में इसकी निर्लिप्तता ज्यों-की-त्यों रहती है-‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’[2]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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